मेरा यह प्रस्ताव इसलिए शुरु हुआ क्यूँकि मै शरद जोशी द्वारा लिखी गयी एक पुस्तक पढ़ रही हूँ - उनकी अप्रकाशित व्यंग्य-लेखों का संकलन । मुझे ध्यान आया की ऐसा समय भी होता था जब मै भी व्यंग्य लिखा करती थी । जोशी जी के समान परिहास-युक्त तो नहीं होती थी मेरी ये रचनाएं पर हर दो मिनट शब्दकोश का उपयोग तो नही करना पढ़ता था ।
कुछ एक साल पहले भ्रष्टाचार की काफी बातें हो रही थीं । मुझे जोशी जी की यह टिप्पणी उचित लगी - "अहमदाबाद से उठी भ्रष्टाचार-विरोधी हवा में आज यदी मै सत्ता की राजनीति से अधिक गहराई खोजूं तो मुझ-सा मूर्ख दूसरा न होगा । एक नारा उठा, सत्ता मिल गयी । दूसरा उठा, सत्ता चली गयी । "
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